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    भगत सिंह के लिए जब लड़ गए थे मोहम्मद अली जिन्ना | Matrubhoomi

    31 minutes from now

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    ना जाने किसकी नजर लग गई थी पैरों को, तमाम उम्र चले और कहीं नहीं पहुंचे।  ऐसा होता है जब चलने वाले को यही पता ना हो कि पहुंचना कहां है। न जाने ऐसे कितने ही काबिल लोग अपना लक्ष्य चुनने में इतनी देर कर देते हैं कि उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए वक्त ही नहीं बचता। भगत सिंह सिर्फ 12 साल के साथ जब पंजाब में जालियावाला बाग हत्याकांड हुआ था। वो उत्सव का दिन था जिसे ब्रिटिश फौज से मातम में बदल दिया। हजारों बेगुनाह लोगों को गोलियों से भून डाला। भगत सिंह ने लहू से लाल हो चुकी बाग की मिट्टी को अपनी मुट्ठी में भरकर सौगंध ली- ‘अंग्रेजों को छोडूंगा नहीं।’ फिर आता है 23 मार्च 1931 का वो दिन। लाहौर का सेंट्रल जेल इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंज रहा था। वहां मौजूद हर किसी की आंखों में आंसू थे और दिल में अंग्रेजों के लिए नफरत। लेकिन सभी की आंखें उस 23 साल के नौजवान को निहार रही थी जो अपने दो साथियों के साथ मुस्कुराते हुए फांसी के तख्ते की तरफ जा रहा था। हर कोई उस गबरू नौजवान को आखिरी बार देख लेने के लिए  बेचैन था। जिसने जेल में होते हुए भी पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। वही ब्रिटिश साम्राज्य जिसके बारे में ये कहा जाता था कि इस साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता। अंग्रेज जिसे बल से नहीं जीत पाते, उसे खल से हरा देते। लेकिन इसी अंग्रेजी हुकूमत ने 23 साल की कच्ची उम्र लेकिन पक्के इरादे वाले लड़के के सामने धुटने टेंक दिया। इस 23 साल के लड़के ने अंग्रेजों को इस कदर तंग किया हुआ था कि जिस दिन से वो जेल में आया। जेल अपने हिसाब से चला रहा था। हद तो यहां तक थी कि जिस जेल की दीवारें कैदी अक्सर भागने के लिए तोड़ते हैं। उसी जेल की दीवारें रात के अंधेरे में चोरों की तरह जेल प्रशासन को खुद तोड़नी पड़ी क्योंकि जेल प्रशासन के अंदर न तो इतनी हिम्मत थी और न इतनी हैसियत की वो मां भारती के उन तीन वीर सपूतों की लाशों को जेल की मेन गेट से लेकर जा सके। जिस अंग्रेजी हुकूमत को अपनी शैतानी दिमाग पर नाज था। उस अंग्रेजी हुकूमत के पूरे सिस्टम का दुनियाभर में तमाशा और माजक बनाने वाले लड़के को आज डेढ़ अरब लोगों का देश सिर झुकाकर शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह बुलाता है। क्या हुआ था उस आखिरी कुछ घंटो में और उसे 94 साल बाद जानना और दोहराना क्यों जरूरी है? क्योंकि महान लोगों की मौत एक बार नहीं दो बार होती है। पहली बार जब उनके प्राण शरीर को छोड़ देते हैं और दूसरी बार जब हम उनके जीवन से कुछ सीखना छोड़ देते हैं।इसे भी पढ़ें: Morarji Desai Unknown Story | देश के पहले गैर कांग्रेसी PM की अनसुनी कहानी | Matrubhoomi प्रगतिशील स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार में जन्म भगत सिंह के पिता किशन और चाचा अजीत दोनों ही अंग्रेजों के खिलाफ राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। उनके पिता अक्सर औपनिवेशिक शासन के साथ मतभेद रखते थे और यहां तक ​​कि 1910 में कुछ समय के लिए जेल भी गए थे। उनके चाचा को 1907 में पंजाब उपनिवेशीकरण विधेयक के खिलाफ उनके भड़काऊ भाषणों और आंदोलन के लिए मांडले निर्वासित कर दिया गया था। अपनी रिहाई के बाद, वे यूरोप और फिर अमेरिका चले गए, जहाँ वे सैन फ्रांसिस्को स्थित ग़दर पार्टी से जुड़े। इसका मतलब यह था कि कम उम्र से ही भगत सिंह उपनिवेशवाद विरोधी माहौल में पले-बढ़े थे। भगत सिंह और उनके विचार (1990) में हंसराज रहबर ने लिखा कि युवा भगत सिंह अपनी माँ का दूध पीते हुए भी राष्ट्रवादी परंपराओं को आत्मसात करने में सक्षम थे। फिर भी, कई मायनों में, भगत सिंह - जैसा कि क्रिस मोफ़ैट ने इंडियाज़ रिवोल्यूशनरी इनहेरिटेंस: द पॉलिटिक्स एंड प्रॉमिस ऑफ़ भगत सिंह (2019) में लिखा है - असहमतियों के परिवार से एक असंतुष्ट व्यक्ति थे। यह सबसे उल्लेखनीय रूप से उनके पिता की सार्वजनिक रूप से फटकार में देखा जा सकता है, जब उनके बेटे को फाँसी का सामना करना पड़ रहा था, तब उन्होंने वायसराय के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत की थी। भगत सिंह ने बूढ़े किशन को उनकी कमज़ोरी और निंदित क्रांतिकारियों के उद्देश्य को कमज़ोर करने के लिए फटकार लगाई। भगत सिंह के लिए जब लड़ गए थे मोहम्मद अली जिन्ना भगत सिंह भूख हड़ताल की वजह से अदालत में पेश नहीं हो पा रहे थे। इसीलिए ब्रिटिश हुकूमत ने सेंट्रल लेजिसलेटिव एसेंबली में एक बिल पेश किया था जिसमें आरोपी की गैर-मौजूदगी में भी मामले की सुनवाई करने की इजाजत मांगी गई थी। सितंबर 1929 में इसी बिल के विरोध में जिन्ना ने मजबूती से आवाज उठाई. उन्होंने कहा था कि ऐसा करके इंसाफ का मजाक बनाया जा रहा है। मदन मोहन मालवीय ने भी जिन्ना का साथ दिया था और एसेंबली सत्र खत्म होने के बावजूद स्पीकर से 15 मिनट का और वक्त मांगा. हालांकि, मालवीय की अपील को अनसुना कर दिया गया। अगले दिन जब बैठक शुरू हुई तो जिन्ना ने फिर से भगत सिंह के ट्रायल की कानूनी वैधता को लेकर सवाल खड़े किए। जिन्ना की जोरदार बहस के बाद एसेंबली ने बिल को खारिज कर दिया था। क्या  सच में महात्मा गांधी ने नहीं की फांसी रोकने की कोशिश 17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच बातचीत हुई। इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ। इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई। मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई। भगत सिंह के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें। लेकिन गांधी जी ने ऐसा नहीं किया। इसके पीछे की वजह यंग इंडिया अखबार में लिखे लेख में बताई गई। उन्होंने लिखा, "कांग्रेस वर्किंग कमिटी भी मुझसे सहमत थी। हम समझौते के लिए इस बात की शर्त नहीं रख सकते थे कि अंग्रेजी हुकूमत भगत, राजगुरु और सुखदेव की सजा कम करे। मैं वायसराय के साथ अलग से इस पर बात कर सकता था। गांधी ने वायसराय से 18 फरवरी को अलग से भगत सिंह और उनकी साथियों की फांसी के बारे में बात की। इसके बारे में उन्होंने लिखा, ''मैंने इरविन से कहा कि इस मुद्दे का हमारी बातचीत से संबंध नहीं है। मेरे द्वारा इसका जिक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे। लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए। गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कानूनी रास्ते भी तलाशने शुरू किए। 1928 में कांग्रेस के गोवाहाटी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस और गांधी के बीच मतभेद के बीज पड़ गए। सुभाष चंद्र पूर्ण स्वराज से कम किसी भी चीज पर मानने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस के अंदर सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने भी गांधी जी और इरविन के समझौते का विरोध किया। वे मानते थे कि अंग्रेज सरकार अगर भगत सिंह की फ़ांसी की सज़ा को माफ़ नहीं कर रही थी तो समझौता करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई तो महात्मा गांधी से उनके मतभेद और बढ़ गए। नेताजी को ये लगा कि अगर गांधी जी चाहते तो उनकी फांसी रूक जाती। वायसराय ने अपनी किताब में किया उल्लेख वायसराय लार्ड इरविन ने भगतसिंह की फांसी के कई दशक बाद अपनी आत्मकथा लिखी। उसमें सिलसिलेवार इस घटनाक्रम की जानकारी और लोगों के नाम लिखे गए हैं। तत्कालीन वायसराय ने अपनी जीवनी में लिखा है कि उनके पास तीन विकल्प थे पहला यह कि कुछ नहीं किया जाए और फांसी होने दी जाए। दूसरा यह कि आज्ञा बदल दी जाए और भगतसिंह की सजा घटा दी जाए। तीसरा यह कि कराची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन तक इस मामले को टाल दिया जाए। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे कागजात इस बात की पुष्टि करते हैं। पुस्तक में सान्याल ने लिखा है कि दो दिन यानी 18 फरवरी और 19 मार्च को गांधी जी ने भगतसिंह के संबंध में बात की। लार्ड इर्विन ने अपने रोजनामचे में लिखा है- दिल्ली में जो समझौता हुआ उससे अलग और अंत में मिस्टर गांधी ने भगतसिंह का उल्लेख किया।
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