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    हापुड़ की 'पैड वुमन':सैनिटरी पैड से बदली गांव की महिलाओं की तस्वीर, डॉक्यूमेंट्री को मिला ऑस्कर अवॉर्ड

    4 hours ago

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    नवरात्री पर आज हम हापुड़ की एक ऐसी महिला की बात कर रहें हैं जिसने एक छोटे से गांव से शुरुआत कर महिला सशक्तिकरण की एक बड़ी मिसाल पेश की। हापुड़ के काठीखेड़ा गांव की स्नेहा ने सैनिटरी पैड को सिर्फ एक उत्पाद नहीं, बल्कि महिलाओं को सशक्त करने का एक जरिया बना दिया। मिडिल क्लास फैमिली से आने वाली स्नेहा ने माहवारी या पीरियड जैसे संवेदनशील विषय पर काम करके समाज की सोच को चुनौती दी। उनके इसी साहस और बदलाव की कहानी को रेनी एलर्ज़ और माया सेनगुप्ता की डॉक्यूमेंट्री 'पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस' में जगह मिली। जिसने 2019 में ऑस्कर अवॉर्ड जीतकर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। उनकी कहानी सिर्फ एक शॉर्ट फिल्म के ऑस्कर जीतने की नहीं, बल्कि एक छोटे से गांव से उठी उस आवाज की है जिसने करोड़ों महिलाओं की जिंदगी को छुआ। स्नेहा ने गांव में सैनिटरी पैड यूनिट की स्थापना की। उनकी इस पहल से सिर्फ सैनिटरी पैड ही नहीं बने, बल्कि गांव की महिलाओं को अपनी मासिक आय और आत्मसम्मान का जरिया भी मिला। इनकी वजह से आज काठीखेड़ा गांव में माहवारी पर खुलकर चर्चा होती है। बचपन से था यूपी पुलिस में भर्ती होने का सपना स्नेहा का बचपन एक सामान्य से परिवार में बीता। कम उम्र में उन्होंने यूपी पुलिस में भर्ती होने का सपना देखा लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ने इस सफर को कठिन बना दिया। साथ ही ग्रामीण इलाकों में माहवारी को लेकर समाज की सोच उनके लिए एक और बड़ा संघर्ष बन गई। पीरियड पर खुलकर बात न कर पाना और महिलाओं को इसके कारण होने वाली शारीरिक और मानसिक समस्याएं, स्नेहा के लिए चिंता का विषय बन गई। उन्होंने इसे बदलने की ठान ली। 150 से अधिक महिलाओं को सैनिटरी पैड बनाने का प्रशिक्षण दिया 2017 में एक्शन इंडिया एनजीओ से प्रशिक्षण लेने के बाद स्नेहा ने एक सैनिटरी पैड यूनिट की शुरुआत की। उनकी यह पहल सिर्फ व्यवसाय तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका उद्देश्य महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना था। उन्होंने 150 से अधिक महिलाओं को अपने साथ जोड़ा, इस पहल का नाम 'पैड विमेन' रखा गया। इससे न केवल महिलाओं को रोजगार मिला, बल्कि उनके आत्मसम्मान को भी बढ़ावा मिलता गया। इससे महिलाओं को 1500-2000 की मासिक आय मिलने लगी और मासिक धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर भी खुलकर बात करने का माहौल बना। स्नेहा कहती हैं, “हमने पैड्स के साथ महिलाओं का सम्मान बढ़ाया। अब वे अपने मुद्दों पर खुलकर बात कर सकती थीं।” पहल की शुरुआत करते हुए उन्होंने ऐसे घरों को चुना जहां महिलाओं का प्रशिक्षित होना जरूरी था। महिलाएं आगे आई और उन्होंने घर-घर जाकर डेमो देना शुरू किया। इसमें वे बताती कि सैनिटरी पैड कैसे उपयोग होता है। यह कैसे सुरक्षित है और डिस्पोजेबल भी है। उन्होंने बताया कि अगर इसे मिट्टी में मिलाया जाए तो यह खाद का काम करेगा। पैड्स बनाना आसान, सम्मान बढ़ाना कठिन था उन्होंने अभियान के तौर पर गांवों में वर्कशॉप आयोजित की। जहां महिलाओं को बताया कि पीरियड कोई अभिशाप नहीं, बल्कि प्राकृतिक प्रक्रिया है। उन्होंने स्कूलों में जाकर लड़कियों को शिक्षित किया। जिससे आने वाली पीढ़ी ऐसी मानसिकताओं से मुक्त हो। स्नेहा कहती हैं, "पैड्स बनाना तो आसान था, लेकिन महिलाओं का सम्मान बढ़ाना असली क्रांति थी।" उनकी यह पहल आज अन्य गांवों में फैल चुकी है, जहां कई महिलाएं इसका फायदा ले रहीं हैं। इस सफर पर बात करते हुए स्नेहा बताती हैं कि शुरुआत में उन्हें कई चुनौतियां मिली। वह कहती हैं कि हमारा गांव काफी पिछड़ा है। वहां के लोग इस काम की निंदा करते थे। कई बार पिता जी से सवाल हुए की बेटी को किस फील्ड में डाल दिया। वे कहती हैं कि परिवार ने हमेशा मेरा साथ दिया और आज मुझे गर्व है। अपने परिवार पर और अपने आप पर। बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री बनी 'पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस' स्नेहा के इस प्रयास को रेनी एलर्ज़ और माया सेनगुप्ता ने 26 मिनट की डॉक्यूमेंट्री 'पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस' में दर्शाया। गुनीत त्रेहन और गुनीत मोंगा द्वारा निर्मित इस डॉक्यूमेंट्री को विश्व स्तर पर सराहना मिली। 24 फरवरी 2019 को इसे लॉस एंजिलिस में 91वें ऑस्कर अवॉर्ड्स में बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री का पुरस्कार मिला। यहां स्नेहा ने स्टेज पर ट्रॉफी थामी। नेटफ्लिक्स पर रिलीज होने के बाद यह फिल्म वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बनी। इसने ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण को नई पहचान दी। स्नेहा वर्तमान में यूपी पुलिस में कार्यरत हैं। उनकी सैनिटरी पैड यूनिट अब अन्य गांवों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई है।
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